या देवी सर्वेभूतेषू शक्ति रूपेण संस्थिता:।
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नम:॥
उपर मंदिर में विराजमान मॉ भवानी |
छत्तीसगढ़ के पावन धार्मिक स्थलों में एक नाम आता है डोंगरगढ़ जी हां,
मां बम्लेश्वरी की पावन धरती डोंगरगढ़ से मात्र 17 किलोमीटर की दूरी पर
स्थित है ग्राम करेला। यहां स्थित डोंगरी को भवानी डोंगरी के नाम से जाना
जाता है। बीट क्रमांक 321 जो कि 380 हेक्टेयर में फैला है। इस पहाड़ी पर
प्राकृतिक छटा के मध्य विराजमान है मां भवानी। यहां से लगा है ग्राम
बन्दबोड़, यहां जंगल में स्थापित है बाबा बन्छोर देव। यहां स्थापित बन्छोर
देव की प्रतिमाएं पन्द्रहवीं - सोलहवीं ईसा पूर्व की बताई जाती है।
नीचे मंदिर में विराजमान मॉ भवानी |
बनबोड़ के जंगल में विराजमान बाबा बन्छोर देव |
इन धार्मिक स्थलों की ओर जाने के पूर्व पहुंचना पड़ता है ढारा - मोहारा चौक
, जो ठेलकाडीह से होते हुए जिला मुख्यालय राजनांदगांव से जोड़ता है।
दक्षिण से आने वाले मार्ग में मां बम्लेश्वरी की पावन धरा डोंगरगढ़ को
जोड़ता है। जबकि उत्तर से आने वाले मार्ग खैरागढ़ को जोड़ता है। मां
दन्तेश्वरी चौक से ही देखने मिलती है पुरातातात्विक महत्व के पाषाण पर
अंकित कलाकृतियॉ । जहां पूर्व की सड़क से निकलते वक्त एक विशालकाय पीपल
वृक्ष के तले दाहिने ओर पुरातात्विक महत्व की कलाकृतियाँ मिलती है, वहीं
दक्षिण की ओर निकलने पर दाहिने की ही ओर पुरातात्विक महत्व की कलाकृतियाँ
मिलती हैं। यहां पर मां भवानी मंदिर पहुंच मार्ग को चिन्हाकिन्त करने
बोर्ड लगाया गया है।
मां दंतेश्वरी चौक से उत्तर की ओर पक्की सड़क से आगे बढऩा पड़ता है। लगभग
एक किलोमीटर का रास्ता तय करते ही पुन: मार्ग विभाजक मिलता है। यहां पर से
ही पश्चिम की दिशा की ओर प्राकृतिक छटा दिखना शुरू हो जाता है। मार्ग
विभाजक से जहां एक मार्ग उत्तर दिशा की ओर जाता है वहीं दूसरे मार्ग पूर्व
दिशा की ओर जाता है। हालांकि दोनों मार्ग खैरागढ़ को जोड़ता है यहां से मां
भवानी, बाबा बन्छोर देव एवं मां विन्धयवासिनी के दर्शनार्थ भक्तजनों को
उत्तर दिशा की मार्ग पर चलना पड़ेगा। इस तिराहे से ही प्राकृतिक छटा दिखाई
देने लगता है। इस मार्ग से गुजरते हुए पश्चिम दिशा की ओर पड़ी दिखाई देती
है खेती की जमीन और आच्छादित वन। यहां की प्राकृतिक छटा मन को लुभाने लगता
है। जल्द से जल्द उस प्राकृतिक छटा के नजदीक पहुंचने की लालसा बढ़ जाती
है। यह मार्ग भी पक्की ही है। इस डामरीकृत मार्ग से होते हुए लगभग दो
किलोमीटर का रास्ता तय करने के बाद फिर एक तिराहे मिलेगा। इसे करेला चौक
नाम से जाना जाता है। यहां पर दो करेला गांव है। पूर्व दिशा में स्थित गांव
को नया करेला कहा जाता है जबकि पश्चिम दिशा में स्थित गांव को पुराना
करेला के नाम से जाना जाता है। यानि मां भवानी का पावन तीर्थ स्थल। इस
मार्ग में प्रवेश कच्ची मार्ग से करना पड़ता है। आज भी इस क्षेत्र की
महिलाएं जंगलों से लकडिय़ां बीन कर लाती है। उसकी आग से भोजन बनता है। इस
मार्ग से सिर पर लकडिय़ों की गठ्ठर उठाए आती महिलाएं दिख ही जायेंगी। लगभग
एक फर्लांग बाद ही शुरू हो जाता है पुराना करेला। यहां एकाध मकान को छोड़
दे तो शेष मकान कच्ची और कवेलू के ही नजर आते हैं। मकानों के आंगन बांसों
को घेरा से सुरक्षित दिखाई देगी। इन मकानों को पीछे छोड़ते ही दिखाई देने
लगती है हरियाली से आच्छादित वन और दूर दूर तक खाली पड़ी जमीन। जैसे ही वन
ही निचले भाग में पहुंचे कि नीचे स्थित मां भवानी मंदिर के गगनचुंबी गुंबद
और लहराते ध्वजा अपनी ओर खींचती है, मंदिर घंटी घंटी की गूंज से किसी
धार्मिक स्थल पर होने की अनुभूति होने लगती है।
मां भवानी मंदिर के सामने बनाया गया है हवनकुण्ड। यहां क्वांर एवं
चैत्रनवरात्रि पर्व पर ज्योति विर्सजन पूर्व किया जाता है हवन कार्यक्रम ।
नीचे स्थित मां भवानी के दर्शन बाद उत्तर दिशा में कुछ ही कदम की दूरी पर
चलना पड़ता है फिर मुडऩा पड़ता है पश्चिम की ओर। जैसे ही ऊपर पहाड़ी पर
विराजमान मां भवानी के दर्शनार्थ कदम बढ़ते हैं तो सामने मिलता है प्रवेश
द्वार। इस प्रवेश द्वार को वृक्ष का रूप दिया गया है। थोड़ी दूर मिलती है
समतल भूमि। जैसे ही सीढ़ी शुरू होती है इसके पहले दाहिने ओर मिलती है एक
बोरिंग जहां प्यास बुझा भक्तगण बढ़ते चलते हैं आगे की ओर। अभी पहाड़ी वाली
मां भवानी के प्रागंण तक पहुंचने के लिए सीढ़ी का निर्माण कार्य जारी है।
कुछ सीढिय़ां लांघने के बाद शुरू हो जाता है पथरीला राह। वन की चढ़ाई और
पथरीला राह को भक्तगण बिसर जाते हैं अपने आजू - बाजू के वनों की हरियाली को
देखकर।
पथरीला राहों को पीछे छोड़ते हुए भक्तगण पहुंच जाते हैं उस स्थल पर जहां की
प्राकृतिक छटा के दर्शन की ललक को वह संवार नहीं पाता। पहाड़ की इस समतल
क्षेत्र पर खड़ा होकर निहारने से दूर - दूर तक दिखाई देने लगते हैं घने
जंगल। इस अनुपत दृश्य को देखकर एक पल तो लगता है कि कहीं सतपुड़े के घने
जंगल में तो नहीं पहुंच गये। इस स्थल पर खड़े होकर देखने से जहां पश्चिम की
ओर दिखाई देता है ओडार बांध वहीं दक्षिण दिशा की ओर डोंगरगढ़ की पहाड़ी पर
विराजमान मां बम्लेश्वरी की मंदिर। यहां से डंगोरा, खैरबना जलाशय एवं
शिवपुरी तालाब को भी आसानी से देखा जा सकता है।
भक्तगणों के कदम आगे बढ़ते हैं। थोड़ी सी ही चढ़ाई बाद पहुंच जाते हैं मां
भवानी के दरबार में। जिस मंदिर में भवानी विराजमान है, उससे कुछ ही दूरी पर
एक वृक्ष के नीचे चौड़ी पर मिट्टी का बनाया गया है नादिया बैल। यहां पर
हाथी और हूम धूप का खप्पर रखा गया है। यहां पर बजरंगबली की मूर्ति स्थापित
है जिसके बाद में एक गदा रखा गया है। उसके ठीक सामने तुलसी चौरा है। मां
भवानी की तस्वीर के सामने मां की सवारी है। मां भवानी मंदिर के भीतर दीप
प्रज्जवलित की गई है जो अनवरत जलती रहती है। मां भवानी मंदिर के ठीक बाजू
अर्थात् उत्तर दिशा में ज्योति कक्ष बनाया गया है। यहां प्रतिवर्ष भक्तों
द्वारा क्वांर एवं चैत्र नवरात्रि के पावन पर्व पर मनोकामना दीप प्रज्जवलित
की जाती है। मंदिर की दक्षिण दिशा में मां की झूला है। इसके ठीक पीछे
त्रिशूल, बाना, तराजू खंजर और माताजी के नील लगे चरण पादुका रखा गया है।
मां भवानी के आगमन के संबंध में बताया जाता है कि आज से लगभग दो ढाई सौ
वर्ष पूर्व स्वर्गीय श्री नारायण सिंह कंवर जो कि मालगुजार थे ओसारे में
कुछ ग्रामीणों के साथ बैठे हुए थे। जेठ - बैसाख का माह था। भरी दुपहरी में
जलजलाती हुई सर्वांग में बड़ी माता लिए एक तरूण अवस्था की कन्या आयी।
चेहरे तेज, उन्नत ललाट, श्वेत वस्त्र धारण किये उस कन्या ने मालगुजार स्व.
श्री नारायण सिंह कंवर से अपने विश्राम के लिए जगह मांगी। श्री कंवर ने
उससे अपने घर में ही रहने का आग्रह कर फिर से ग्रामीणों से बातचीत करने
व्यस्त हो गये मगर जैसे ही उनका ध्यान ग्रामीणों से बंटा और ध्यान आया कि
कोई कन्या आयी थी तथा ठहरने के लिए जगह मांगी थी वह दिखाई नहीं दे रही है।
वे हड़बड़ा गये। तब तक वह कन्या वन का रास्ता पकड़ ली थी। स्वर्गीय नारायण
सिंह कंवर उस कन्या के पीछे दौड़े साथ ही ग्रामीण भी। जब तक वे उस तक
पहुंचते तब तक वह कन्या ऊपर पहाड़ी पर पहुंचकर बांस भीरा और एक चिरपोटी के
नीचे छांव पर जा बैठी थी। श्री कंवर ने हाथ जोड़कर कहा कि माता मैंने तो
आपको अपने घर में ठहरने कहा था, आप तो यहां आ गयी। चलिए मेरे निवास में...
तब माता ने कहा - मेरे लिए यही जगह उपयुक्त है। मुझे यही रहना है। मां
भवानी की बात सुनकर स्वर्गीय नारायण सिंह कंवर ने ग्रामीणों को वहां कुटिया
बनाने कहा। ग्रामीण कुटिया बनाने लकड़ी की व्यवस्था कर ही रहे थे कि वह
कन्या वहीं पर लुप्त हो गयी।
बताया जाता है कि मां भवानी सर्वमंगलकारी है। उनकी कृपा से कई लोगों की दरिद्रता दूर हुई है। कष्टों से कई लोगों ने मुक्ति पाई है।
नीचे मां भवानी मंदिर समतल भूमि में स्थित है। मां भवानी और बाबा बन्छोर
देव की पावन धरा बन्दबोड़ के मध्य बना है एक जलाशय। इस जलाशय को भंडारपुर
जलाशय के नाम से जाना जाता है। यहां की प्राकृतिक छटा देखते ही बनती है। इस
प्राकृतिक छटा को निहारते हुए भक्तगण पहुंचते है ग्राम बन्दबोड़ और फिर
शुरू हो जाता है बाबा बन्छोर देव के दर्शनार्थ पहुंचने पथरीला रास्ता। यहां
मोकइया वृक्ष के तले घोड़े पर बाबा बन्छोर देव सवार है। यहां दर्जनों की
संख्या में पुरातात्विक महत्व की कलाकृतियाँ बाउण्ड्रीवाल की दीवार से संटा
कर रखी गई है। किंवदंती है कि एक समय छैमासी रात पड़ी थी। इस छैमासी रात
में बन्छोर देव घोड़े पर सवार होकर दल - बल समेत बरात जा रहे थे। संभवत:
वह रात छैमासी की आखिरी रात थी। बाबा बन्छोर देव दल बल सहित बनबोड़ के वन
से गुजर रहे थे कि सुबह हो गई और वे मूर्तिरूप में परिवर्तित हो गए। यह भी
कहा जाता है कि ग्राम बन्दबोड़ के लोग मूर्तिकला में पारंगत थे। वे खाली
समय में मनोरंजन की दृष्टि से वन में जाकर पत्थरों में मूर्ति कुरेदा करते
थे। आज भी बन्दबोड़ में कुंभकारों का एक पारा है। यहां के मूर्तिकारों की
ख्याति न सिर्फ गांव तक सीमित है, अपितु इनके द्वारा बनाये मूर्तियों की
मांग जिला मुख्यालय तक है, इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यहां आदिकाल
से मूर्तिकला जीवित है। बन्छोर देव तक पहुंचने के पूर्व रावण भाठा पड़ता
है, जहां प्रत्येक वर्ष दशहरा पर्व मनाया जाता है यहां संक्षिप्त रामलीला
के बाद रावण वध किया जाता है।
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