तब
मैं संभवतः पांचवी या छठवी का छात्र था। मेरा गांव तब उतना विकसित नहीं हो
पाया था जितना कि अब हो गया है। मेरे गांव से ही लगा हुआ है ग्राम करेला
जहां दो करेला गांव होने के कारण राजस्व रिकार्ड में एक ही करेला जिसे नया
करेला के नाम से जाना जाता है शामिल था यही कारण है कि जो भी शासकीय कार्य
आता वह नया करेला में ही किया जाता था स्थिति यहां तक थी कि पुराना करेला
जहां की डोंगरी में मां भवानी विराजमान है उस गांव में बिजली भी नहीं पहुंच
पायी थी। वहां के लोग तब भी लालटेन या चिमनी जलाकर घर को रोशनी करते थे जब
उस गांव के आसपास के गांव बिजली की रोशनी से नहा रहा होता था। जनप्रतिनिधि
भी वोट के समय तो उस गांव में चले आते मगर वोट के बाद उस गांव को भूल जाया
करते थे।उसी गांव की डोंगरी पर स्थिति मां भवानी के संबंध में मैंने बचपने
से सुना रखा था कि वहां विराजमान मां भवानी सबकी मनोकामना पूर्ण करती है।
मेरे गांव में एक गोरखबाबा आया करता था। उसके भजन गायन बहुत ही निराली हुआ
करती थी। वह जब भी गांव में आता तो मेरे घर के पास ही पुरषोतम का मकान है
जहां कभी छपरी हुआ करती थी और पुरषोतम के पिता डुरियाहा उस पर कब्जा जमाया
रहता था। उसी छपरी पर गोरखनाथ बाबा आकर रूकते थे और वहीं से गांव गांव जाकर
दिन भर घूमते तथा रात्रि विश्राम के लिए वहीं पहुंच जाते। संध्या को
पहुंचने के बाद स्वयं भोजन बनाते और भोजन बाद वह अक्सर रात में पूरी
तन्मयता से सारंगी की धुन में भजन गाया करते थे।हम बच्चे थे। उनकी गायन
शैली और वाद्य ेेकी धुन सुनकर वहां पहुंच जाते। उस गोरखबाबा की खूबी यह थी
कि उसने कभी हमारी बात नहीं नकारी और तब तक हमें भजन सुनाते जब तक हम वहां
बैठे रहते थे।
सुन तो रखा था - पुराना करेला की डोंगरी बीट क्रमांक 321 जो कि 380
हेक्टेयर में फैली है में मां भवानी विराजमान है तब न वहां सिढ़ियां थी और न
ही नीचे कोई मंदिर देवालय।ईश्वर के अस्तित्व को मेरे मन के किसी कोना ने
स्वीकार तो ली थी यही करण है कि जब भी मैं अपने गांव से डोंगरगढ़ की ओर जाता
तो जहां मां भवानी के विराजमान होने की बात लोग कहते थे उस डोंगरी की ओर
देखकर मैं अवश्य एक बार प्रणाम कर लेता था। मैं यह तो जानता था कि करेला की
डोंगरी में मां भवानी विराजमान है मगर मैं यह पक्का नहीं जान पाया था कि
कौन सी स्थान में मां भवानीं विराजमान है। क्योंकि ग्राम करेला से लगा हुआ
अनेक डोंगरियां है जो एक छोर से शुरू होकर दूर तक फैली है।
गोरखनाथ बाबा आए हुए थे। हम बच्चे जिसमें चन्द्रेश शर्मा, पवन जैन,
नरेन्द्र ठाकुर, के अलावा अन्य लोग बैठे हुए थे। जाने कैसी हम लोगों के
मध्य करेला डोंगरी में मां भवानी के होने की चरचा चल पड़ी,मुझे जहां तक
ख्याल है तब हमारे गांव में दो ही बस चलती थी एक डोंगरगढ़ से खैरागढ़ फिर शाम
को खैरागढ़ से डोंगरगढ़ और दूसरी बस सुबह मुढ़ीपार से राजनांदगांव और शाम को
राजनांदगांव से मुढ़ीपार। वह बस मुढ़ीपार में रात के रूकती थी। ये दोनों बसें
तब चलती जब बारिस का दिन नहीं होता बारिस लगते ही खैरागढ़ से डोंगरगढ़ चलने
वाली बस चलना बंद हो जाती थी क्योंकि पाड़ादाह व गर्रापार पुल में पानी पुल
के उपर आ जाता था। मुझे लगता है कि तब हमारे गांव के अतिरिक्त हमारे गांव
के आस पास के गांव के लोग भी डोंगरगढ़ पहाड़ी पर विराजमान मां बम्लेश्वरी के
दर्शन के लिए जाते थे। बस खचाखच भरी रहती थी और पैर रखने की ठौर नहीं होने
के बावजूद हम ठूसाने से बाज नहीं आते थे। संभवतः मां बम्लेश्वरी के
दर्शनार्थ आगंतुकों को देखकर मेरे मन के किसी कोने में यही लालसा रही होगी
कि मेरे गांव के पास डोंगरी में विराजमान मां भवानी के दर्शनार्थ भी ऐसे ही
लोग पहुंचें। यह चाहत सिर्फ मेरी ही नहीं रही होगी मेरे गांव के अतिरिक्त
अन्य गांव के लोगों की भी यही लालसा रही होगी। आवश्यकता मूर्तरूप देने की
थी। बात ही बात में डुरियाहा डोंकरा की छपरी में डेरा जमाये उस गोरखनाथ
बाबा के समुख हममें से किसी एक ने प्रस्ताव रख दिया कि क्यों न जहां मां
भवानी विराजमान है उस पहाड़ी में ज्योति प्रज्जवलित की जाये। हमारी बात उस
गोरखनाथ बाबा को जम गयी और एक दीप प्रज्जवलित करने का बीड़ा उसने उठा लिया।
फिर गांव करेला के लोगों ने एक समिति का गठन किया। जिसे मां भवानी सेवा
समिति का नाम दिया गया। जिसके अध्यक्ष महेन्द्रपाल के पिता गैंदलाल कंवर को
बनाया गया। फिर शुरू हो गयी मां की सेवा। फिर भी उस गांव तक पहुंचने के
लिए न सड़क थी न काली अंधेरा को दूर भगाने के लिए बिजली थी। वहां एक मूर्ति
थी। उस मूर्ति के संबंध में किसी को पता नहीं कि वह मूर्ति कब से उस स्थान
पर विराजमान है और उसकी स्थापना किसने की। जनमत है कि पहली मूर्ति आदिकाल
से है उस स्थान पर है। दूसरी मूर्ति सेठ प्रकाश जैन ने भेड़ाघाट जाकर लाया।
जिसकी विधि विधान से उस डोंगरी में स्थापित की गयी। इस तरह उपर मंदिर में
दो मूर्तियां हो गयी। धीरे - धीरे वहां चैत्र नवरात्रि के अवसर पर
मनोकामना दीप प्रज्जलित करने की संख्या बढ़ती गयी और लोग मां भवानी के
दर्शनार्थ उस डोंगरी में चढ़ने लगे तब गांव में त्यौहार जैसा महौल बनने लगा
और पूरा गांव के गांव मां भवानी के दर्शनार्थ पहुंचने वाले लोगों की सेवा
में लग गये। चैत्र की चिलचिलाती धूप में तब वहां पानी की भी व्यवस्था नहीं
थी। ग्राम करेला के पुरूष वर्ग कांवरों से व महिलाएं हउला से उपर तक पानी
पहुंचा कर भक्तगणों की प्यास बुझाने लगे। तब वहां सिर्फ पत्थरों का उबड़ -
खाबड़ रास्ता था। न सिढ़िया थी और न ही कोई अन्य व्यवस्था।
धीरे - धीरे मेरी उम्र भी बढ़ती गयी। शुरू से मुझे लिखने का शौक था। मां
भवानी की प्रेरणा कहूं या फिर मां बम्लेश्वरी के स्थान जैसे ग्राम करेला भी
बने ऐसी मेरी चाहत थी ! निश्चित नहीं बता पाता। लिखने की चाहत ने मुझे
प्रेरित किया कि क्यों न मैं करेला के संबंध में कुछ लिखूं । और मैंने लिखा
- एक गांव ऐसा जहां आज भी अंधेरा है। संभवतः यह लेख नवभारत में छपा था तब
पत्रकारिता की पूछ परख थी और छपने के बाद तुरंत प्रकाशित किसी लेख या
समाचार पर गौर किया जाता था। जब यह लेख छपा तब धनेश पटिला क्षेत्र के
विधायक थे। पढ़ते ही उनसे जब मेरी मुलाकांत हुई तो कहा - लिखे तो ठीक हो
मगर पुराना करेला और नया करेला का राजस्व ग्राम एक ही होने के कारण अनेक
दिक्कतें आती है जिसके कारण पुराना करेला विकास से वंचित रह जाता है। तब
छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश में था। पटिला ने मुझसे कहा था यदि मुझे अवसर मिला तो
अवश्य पुराना करेला में बिजली अवश्य लगेगी। इसके कुछ ही दिन बाद छत्तीसगढ़
पृथक राज्य बना और जहां अजीत जोगी मुख्यमंत्री बने वहीं उनके मंत्रिमंडल
में धनेश पटिला उर्जा मंत्री बने। अवसर था - मैंने फिर एक लेख छापा - उर्जा
मंत्री के क्षेत्र का एक गांव ऐसा है जहां लोग अब भी लालटेन और कंडील का
सहारा लेते हैं। संभवतः पटिला को अपने दिए वचन याद आ गया और उन्होंने
पुराना करेला में विद्युत विस्तार के लिए बीड़ा उठा लिए। वे उर्जा मंत्री
थे। कार्य आसानी से हो गया। और उनके कार्यकाल में पुराना करेला बिजली की
रोशनी से नहा गया।
कहीं न कहीं मां भवानी के प्रति धनेश पटिला के मन मे भी आस्था थी। वे बराबर
मां भवानी के दर्शन करने जाने लगे। तब धनेश पटिला से मेरा निकटता उतनी
नहीं थी जितनी कि बाद में हुई। तब प्रकाशचंद जैन, प्रमोद
शर्मा, गंगाराम सिन्हा, श्रवणकुमार, सिलिप, धन्नू यादव, सहित अनेक युवा व
बुजुर्ग उनके कार्यकर्ता हुआ करते थे। संभवतः तब धन्नू यादव जो कि बाद में
मां भवानी मंदिर सेवा समिति का अध्यक्ष बने वहां के सदस्य मात्र थे। तब मां
भवानी मंदिर सेवा समिति का अध्यक्ष धीरपाल हुआ करते थे। फिर वहां का
अध्यक्ष धन्नू यादव बना। सचिव अंजोरी निषाद बना। दोनों ने एक सदस्यता
अभियान चलाया चूंकि धन्नू राजनांदगांव में रहता था जिसका उसने पूरा लाभ
उठाया और अनेक लोगों को सदस्य बनाने के साथ चंदा भी वसूला और ग्रामीणों के
सहयोग से नीेचे मंदिर नींव डाल दिया जो धीरे - धीरे पूरा मंदिर का रूप ले
लिया। एक दिन ग्राम करेला के अनेक लोगों के साथ धन्नू और चन्द्रेश प्रमोद
मेरे पास आये और कहने लगे। नीचे मंदिर का निर्माण पूर्ण हो चुका है। वहां
मूर्ति स्थापना करना है। मूर्ति के लिए धनेश पटिला से पैसा मांगा जाये। मैं
कभी धनेश पटिला से पैसा नहीं मांगा था। बावजूद मैं धनेश पटिला के पास जाने
को तैयार हो गया। हम लोग पटिला के गांव पनेका गये। पता चला पटिलाजी रायपुर
चले गये है। हम निराश - हताश लौट गये। अचानक ध्यान आया कि पटिला जी संभवतः
सर्किटहाउस में होगे। हम लोग सर्किट हाउस पहुंचे। वहां पटिलाजी नहीं मिले।
सब अपने अपने घर को लौट गये।
एक दिन धन्नू, चन्द्रेश, प्रमोद, अंजोरी,धिरपाल सुबह सुबह मेरे पास पहुंचे।
कहने लगे - पटिला जी गांव गये थे। हमने मूर्ति के लिए पैसे मांगे है और
वे देने के लिए तैयार है। चलो, पैसा लेने जाना है। मैं तैयार हो गया। हमें
पटिलाजी सर्किट हाउस में ही मिल गये और उन्होंने हमें मूर्ति लाने पैसे दे
दिए। हम लोग दूसरे या तीसरे दिन भेड़ाघाट गये और वहां से मां भवानी की
मूर्ति लाये। कुछ दिन बाद नीचे मंदिर में मूर्ति की स्थापना की गई।
नीचे मंदिर में विराजमान मॉ भवानी |
ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं इस पर मैं बहस नहीं करना चाहता परन्तु इतना
तो अवश्य कहूंगा कि कहीं न कहीं ईश्वरीय शक्ति है वरन आज न मेरी मुलाकांत
उस गोरखनाथ बाबा से होती न मैं धनेश पटिला के खिलाफ लेख लिखता संभवतः आज भी
पुराना करेला में बिजली नहीं पहुंच पाती , न वहां मंदिर बन पाता और न ही
मैं मूर्ति लाने भेड़ाघाट जा पाता। आज जिस तरह से मां भवानी मंदिर में
मनोकामना ज्योति प्रज्जवलित करने की संख्या बढ़ती ही जा रही है। प्रतिदिन
भक्तगणों की संख्या बढ़ती जा रही है इससे यह स्पष्ट होता है कि कहीं न कहीं
देवीय शक्ति है। जो एक प्रेरणा देती है, कुछ करने के लिए प्रेरित करती है।
बीच के कुछ दिनों मुझे लगने लगा था कि मां भवानी मंदिर सेवा समिति में कुछ
ऐसे लोग घुस गये हैं जो ग्रामीणों में आपसी मनमुटावा के अतिरिक्त धार्मिक
स्थल को राजनीतिक स्थल बना रहे हैं।जिन लोगों ने मां भवानी मंदिर सेवा
समिति में पूर्व में योगदान दिए हैं उनके नाम को विरोपित करने का प्रयास
किया जा रहा है। मेरे पास एक साधन था - समाचार पत्र, मैंने उसमें आजीवन
सदस्यों की सूची प्रकाशित करना शुरू किया ताकि लोगों को सत्यता की जानकारी
हो और यह जान सके कि वास्तव में मंदिर विकास में किन लोगों का प्रथम योगदान
रहा है इसके साथ ही मैं वहां जाना बंद कर दिया मगर संभवतः मां भवानी को यह
स्वीकार्य नहीं था।मेरे सम्पर्क में राजनांदगांव बसंतपुर के बिसनाथ आया।
वह धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसने मेरे सामने राधा कृष्णा मंदिर
निर्माण का प्रस्ताव रखा। उसकी इच्छा थी कि राजनांदगांव में जमीन खरीद कर
राधा कृष्ण मंदिर का निर्माण कराया जाये मगर मां भवानी को तो कुछ और ही
मंजूर था। मैं और बिसनाथ जमीन खोजने निकले। चाह रहे थे - सस्ती में जमीन
मिल जाये तो लेकर मंदिर निर्माण करवा दे। जमीन खोजने जब निकले तो पता चला
कि जितनी की जमीन खरीदी जायेगी उतनी राशि में राधा कृष्ण का मंदिर बन
जायेगा। सहसा मेरे मन में आया कि क्यों न मां भवानी मंदिर करेला में ही
राधा कृष्ण का मंदिर बनवा दिया जाये। मैंने अपनी बात बिसनाथ के पास रखा।
उसे कोई आपत्ति नहीं थी। वह तो मंदिर चाहता था। मैंने ऐसी जगह का नाम बताया
था जहां प्रतिदिन सैकड़ों लोग पहुंचते हैं। बिसनाथ के लिए इससे बड़ी खुशी की
बात और क्या थी कि वह उस स्थान पर मंदिर का निर्माण करवायेगा जहां
प्रतिदिन सैकड़ों दर्शनार्थी दर्शन करेंगे। मैंने मां भवानी मंदिर सेवा
समिति के उपाध्यक्ष उदयलाल वर्मा से सम्पर्क किया। अपना प्रस्ताव रखा।
उदेलाल वर्मा मेरे प्रस्ताव पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा - यह तो
अच्छी बात है। फिर मैं और बिसनाथ मंदिर निर्माण के लिए जगह देखने मां भवानी
मंदिर पहुंचे। उदेलाल वर्मा द्वारा हमें जगह दिखाया गया। जहां से उपर
मंदिर जाने के लिए सीढ़ी शुरू होती है उस स्थान को मंदिर निर्माण के लिए
उदेलाल वर्मा द्वारा दिखाया गया। इससे बड़ी खुशी की बात और क्या थी मंदिर
निर्माण के लिए वह जगह मिल रही थी जहां से होकर दर्शनार्थी डोंगरी
विराजमान मां भवानी के दर्शन के लिए जायेंगे। फिर शुरू हो गया मंदिर
निर्माण का कार्य। मंदिर निर्माण का कार्य उदेलाल वर्मा को सौंपा गया
क्योंकि रोज उपस्थित होकर मजदूरों से काम करवाना मेरे लिए संभव था और न ही
बिसनाथ यादव के लिए।
मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह सब मां भवानी की ही प्रंेरणा का परिणाम है।
कहा जाता है न कि उसके बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। मैं तो मंदिर में
राजनीतिकरण को देख कर थोड़ी दूरी बनाना चाहता था पर मेरे चाहने से क्या होने
वाला था। मां भवानी की चाहत तो और कुछ थी - वह चाहती ही नहीं थी कि मैं
मंदिर से दूर होउं यही कारण है मेरी मुलाकांत बिसनाथ से हुई और उसके
द्वारा मंदिर निर्माण का प्रस्ताव रखा गया।
या देवी सर्वेभूतेषू शक्ति रूपेण संस्थिता:।
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नम:॥
छत्तीसगढ़ के पावन धार्मिक स्थलों में एक नाम आता है
डोंगरगढ़ जी हां, मां बम्लेश्वरी की पावन धरती डोंगरगढ़ से मात्र 17
किलोमीटर की दूरी पर स्थित है ग्राम करेला। यहां स्थित डोंगरी को भवानी
डोंगरी के नाम से जाना जाता है। बीट क्रमांक 321 जो कि 380 हेक्टेयर में
फैला है। इस पहाड़ी पर प्राकृतिक छटा के मध्य विराजमान है मां भवानी। यहां
से लगा है ग्राम बन्दबोड़, यहां जंगल में स्थापित है बाबा बन्छोर देव।
यहां स्थापित बन्छोर देव की प्रतिमाएं पन्द्रहवीं - सोलहवीं ईसा पूर्व की
बताई जाती है।
इन धार्मिक स्थलों की ओर जाने के पूर्व पहुंचना पड़ता
है ढारा - मोहारा चौक , जो ठेलकाडीह से होते हुए जिला मुख्यालय राजनांदगांव
से जोड़ता है। दक्षिण से आने वाले मार्ग में मां बम्लेश्वरी की पावन धरा
डोंगरगढ़ को जोड़ता है। जबकि उत्तर से आने वाले मार्ग खैरागढ़ को जोड़ता
है। मां दन्तेश्वरी चौक से ही देखने मिलती है पुरातातात्विक महत्व के पाषाण
पर अंकित कलाकृतियॉ । जहां पूर्व की सड़क से निकलते वक्त एक विशालकाय पीपल
वृक्ष के तले दाहिने ओर पुरातात्विक महत्व की कलाकृतियाँ मिलती है, वहीं
दक्षिण की ओर निकलने पर दाहिने की ही ओर पुरातात्विक महत्व की कलाकृतियाँ
मिलती हैं। यहां पर मां भवानी मंदिर पहुंच मार्ग को चिन्हाकिन्त करने
बोर्ड लगाया गया है।
बनबोड़ के जंगल में विराजमान बाबा बन्छोर देव |
मां दंतेश्वरी चौक से उत्तर की ओर पक्की सड़क से
आगे बढऩा पड़ता है। लगभग एक किलोमीटर का रास्ता तय करते ही पुन: मार्ग
विभाजक मिलता है। यहां पर से ही पश्चिम की दिशा की ओर प्राकृतिक छटा दिखना
शुरू हो जाता है। मार्ग विभाजक से जहां एक मार्ग उत्तर दिशा की ओर जाता है
वहीं दूसरे मार्ग पूर्व दिशा की ओर जाता है। हालांकि दोनों मार्ग खैरागढ़
को जोड़ता है यहां से मां भवानी, बाबा बन्छोर देव एवं मां विन्धयवासिनी के
दर्शनार्थ भक्तजनों को उत्तर दिशा की मार्ग पर चलना पड़ेगा। इस तिराहे से
ही प्राकृतिक छटा दिखाई देने लगता है। इस मार्ग से गुजरते हुए पश्चिम दिशा
की ओर पड़ी दिखाई देती है खेती की जमीन और आच्छादित वन। यहां की प्राकृतिक
छटा मन को लुभाने लगता है। जल्द से जल्द उस प्राकृतिक छटा के नजदीक
पहुंचने की लालसा बढ़ जाती है। यह मार्ग भी पक्की ही है। इस डामरीकृत मार्ग
से होते हुए लगभग दो किलोमीटर का रास्ता तय करने के बाद फिर एक तिराहे
मिलेगा। इसे करेला चौक नाम से जाना जाता है। यहां पर दो करेला गांव है।
पूर्व दिशा में स्थित गांव को नया करेला कहा जाता है जबकि पश्चिम दिशा में
स्थित गांव को पुराना करेला के नाम से जाना जाता है। यानि मां भवानी का
पावन तीर्थ स्थल। इस मार्ग में प्रवेश कच्ची मार्ग से करना पड़ता है। आज
भी इस क्षेत्र की महिलाएं जंगलों से लकडिय़ां बीन कर लाती है। उसकी आग से
भोजन बनता है। इस मार्ग से सिर पर लकडिय़ों की गठ्ठर उठाए आती महिलाएं दिख
ही जायेंगी। लगभग एक फर्लांग बाद ही शुरू हो जाता है पुराना करेला। यहां
एकाध मकान को छोड़ दे तो शेष मकान कच्ची और कवेलू के ही नजर आते हैं।
मकानों के आंगन बांसों को घेरा से सुरक्षित दिखाई देगी। इन मकानों को पीछे
छोड़ते ही दिखाई देने लगती है हरियाली से आच्छादित वन और दूर दूर तक खाली
पड़ी जमीन। जैसे ही वन ही निचले भाग में पहुंचे कि नीचे स्थित मां भवानी
मंदिर के गगनचुंबी गुंबद और लहराते ध्वजा अपनी ओर खींचती है, मंदिर घंटी
घंटी की गूंज से किसी धार्मिक स्थल पर होने की अनुभूति होने लगती है।
मां
भवानी मंदिर के सामने बनाया गया है हवनकुण्ड। यहां क्वांर एवं
चैत्रनवरात्रि पर्व पर ज्योति विर्सजन पूर्व किया जाता है हवन कार्यक्रम ।
नीचे स्थित मां भवानी के दर्शन बाद उत्तर दिशा में कुछ ही कदम की दूरी पर
चलना पड़ता है फिर मुडऩा पड़ता है पश्चिम की ओर। जैसे ही ऊपर पहाड़ी पर
विराजमान मां भवानी के दर्शनार्थ कदम बढ़ते हैं तो सामने मिलता है प्रवेश
द्वार। इस प्रवेश द्वार को वृक्ष का रूप दिया गया है। थोड़ी दूर मिलती है
समतल भूमि। जैसे ही सीढ़ी शुरू होती है इसके पहले दाहिने ओर मिलती है एक
बोरिंग जहां प्यास बुझा भक्तगण बढ़ते चलते हैं आगे की ओर। अभी पहाड़ी वाली
मां भवानी के प्रागंण तक पहुंचने के लिए सीढ़ी का निर्माण कार्य जारी है।
कुछ सीढिय़ां लांघने के बाद शुरू हो जाता है पथरीला राह। वन की चढ़ाई और
पथरीला राह को भक्तगण बिसर जाते हैं अपने आजू - बाजू के वनों की हरियाली को
देखकर।
पथरीला राहों को पीछे छोड़ते हुए भक्तगण पहुंच जाते हैं उस
स्थल पर जहां की प्राकृतिक छटा के दर्शन की ललक को वह संवार नहीं पाता।
पहाड़ की इस समतल क्षेत्र पर खड़ा होकर निहारने से दूर - दूर तक दिखाई देने
लगते हैं घने जंगल। इस अनुपत दृश्य को देखकर एक पल तो लगता है कि कहीं
सतपुड़े के घने जंगल में तो नहीं पहुंच गये। इस स्थल पर खड़े होकर देखने से
जहां पश्चिम की ओर दिखाई देता है ओडार बांध वहीं दक्षिण दिशा की ओर
डोंगरगढ़ की पहाड़ी पर विराजमान मां बम्लेश्वरी की मंदिर। यहां से डंगोरा,
खैरबना जलाशय एवं शिवपुरी तालाब को भी आसानी से देखा जा सकता है।
भक्तगणों
के कदम आगे बढ़ते हैं। थोड़ी सी ही चढ़ाई बाद पहुंच जाते हैं मां भवानी के
दरबार में। जिस मंदिर में भवानी विराजमान है, उससे कुछ ही दूरी पर एक
वृक्ष के नीचे चौड़ी पर मिट्टी का बनाया गया है नादिया बैल। यहां पर हाथी
और हूम धूप का खप्पर रखा गया है। यहां पर बजरंगबली की मूर्ति स्थापित है
जिसके बाद में एक गदा रखा गया है। उसके ठीक सामने तुलसी चौरा है। मां भवानी
की तस्वीर के सामने मां की सवारी है। मां भवानी मंदिर के भीतर दीप
प्रज्जवलित की गई है जो अनवरत जलती रहती है। मां भवानी मंदिर के ठीक बाजू
अर्थात् उत्तर दिशा में ज्योति कक्ष बनाया गया है। यहां प्रतिवर्ष भक्तों
द्वारा क्वांर एवं चैत्र नवरात्रि के पावन पर्व पर मनोकामना दीप प्रज्जवलित
की जाती है। मंदिर की दक्षिण दिशा में मां की झूला है। इसके ठीक पीछे
त्रिशूल, बाना, तराजू खंजर और माताजी के नील लगे चरण पादुका रखा गया है।
मां
भवानी के आगमन के संबंध में बताया जाता है कि आज से लगभग दो ढाई सौ वर्ष
पूर्व स्वर्गीय श्री नारायण सिंह कंवर जो कि मालगुजार थे ओसारे में कुछ
ग्रामीणों के साथ बैठे हुए थे। जेठ - बैसाख का माह था। भरी दुपहरी में
जलजलाती हुई सर्वांग में बड़ी माता लिए एक तरूण अवस्था की कन्या आयी।
चेहरे
तेज, उन्नत ललाट, श्वेत वस्त्र धारण किये उस कन्या ने मालगुजार स्व. श्री
नारायण सिंह कंवर से अपने विश्राम के लिए जगह मांगी। श्री कंवर ने उससे
अपने घर में ही रहने का आग्रह कर फिर से ग्रामीणों से बातचीत करने व्यस्त
हो गये मगर जैसे ही उनका ध्यान ग्रामीणों से बंटा और ध्यान आया कि कोई
कन्या आयी थी तथा ठहरने के लिए जगह मांगी थी वह दिखाई नहीं दे रही है। वे
हड़बड़ा गये। तब तक वह कन्या वन का रास्ता पकड़ ली थी। स्वर्गीय नारायण
सिंह कंवर उस कन्या के पीछे दौड़े साथ ही ग्रामीण भी। जब तक वे उस तक
पहुंचते तब तक वह कन्या ऊपर पहाड़ी पर पहुंचकर बांस भीरा और एक चिरपोटी के
नीचे छांव पर जा बैठी थी। श्री कंवर ने हाथ जोड़कर कहा कि माता मैंने तो
आपको अपने घर में ठहरने कहा था, आप तो यहां आ गयी। चलिए मेरे निवास में...
तब माता ने कहा - मेरे लिए यही जगह उपयुक्त है। मुझे यही रहना है। मां
भवानी की बात सुनकर स्वर्गीय नारायण सिंह कंवर ने ग्रामीणों को वहां कुटिया
बनाने कहा। ग्रामीण कुटिया बनाने लकड़ी की व्यवस्था कर ही रहे थे कि वह
कन्या वहीं पर लुप्त हो गयी।
बताया जाता है कि मां भवानी सर्वमंगलकारी है। उनकी कृपा से कई लोगों की दरिद्रता दूर हुई है। कष्टों से कई लोगों ने मुक्ति पाई है।
नीचे
मां भवानी मंदिर समतल भूमि में स्थित है। मां भवानी और बाबा बन्छोर देव की
पावन धरा बन्दबोड़ के मध्य बना है एक जलाशय। इस जलाशय को भंडारपुर जलाशय
के नाम से जाना जाता है। यहां की प्राकृतिक छटा देखते ही बनती है। इस
प्राकृतिक छटा को निहारते हुए भक्तगण पहुंचते है ग्राम बन्दबोड़ और फिर
शुरू हो जाता है बाबा बन्छोर देव के दर्शनार्थ पहुंचने पथरीला रास्ता। यहां
मोकइया वृक्ष के तले घोड़े पर बाबा बन्छोर देव सवार है। यहां दर्जनों की
संख्या में पुरातात्विक महत्व की कलाकृतियाँ बाउण्ड्रीवाल की दीवार से संटा
कर रखी गई है। किंवदंती है कि एक समय छैमासी रात पड़ी थी। इस छैमासी रात
में बन्छोर देव घोड़े पर सवार होकर दल - बल समेत बरात जा रहे थे। संभवत:
वह रात छैमासी की आखिरी रात थी। बाबा बन्छोर देव दल बल सहित बनबोड़ के वन
से गुजर रहे थे कि सुबह हो गई और वे मूर्तिरूप में परिवर्तित हो गए। यह भी
कहा जाता है कि ग्राम बन्दबोड़ के लोग मूर्तिकला में पारंगत थे। वे खाली
समय में मनोरंजन की दृष्टि से वन में जाकर पत्थरों में मूर्ति कुरेदा करते
थे। आज भी बन्दबोड़ में कुंभकारों का एक पारा है। यहां के मूर्तिकारों की
ख्याति न सिर्फ गांव तक सीमित है, अपितु इनके द्वारा बनाये मूर्तियों की
मांग जिला मुख्यालय तक है, इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यहां आदिकाल
से मूर्तिकला जीवित है। बन्छोर देव तक पहुंचने के पूर्व रावण भाठा पड़ता
है, जहां प्रत्येक वर्ष दशहरा पर्व मनाया जाता है यहां संक्षिप्त रामलीला
के बाद रावण वध किया जाता है।
तब
मैं संभवतः पांचवी या छठवी का छात्र था। मेरा गांव तब उतना विकसित नहीं हो
पाया था जितना कि अब हो गया है। मेरे गांव से ही लगा हुआ है ग्राम करेला
जहां दो करेला गांव होने के कारण राजस्व रिकार्ड में एक ही करेला जिसे नया
करेला के नाम से जाना जाता है शामिल था यही कारण है कि जो भी शासकीय कार्य
आता वह नया करेला में ही किया जाता था स्थिति यहां तक थी कि पुराना करेला
जहां की डोंगरी में मां भवानी विराजमान है उस गांव में बिजली भी नहीं पहुंच
पायी थी। वहां के लोग तब भी लालटेन या चिमनी जलाकर घर को रोशनी करते थे जब
उस गांव के आसपास के गांव बिजली की रोशनी से नहा रहा होता था। जनप्रतिनिधि
भी वोट के समय तो उस गांव में चले आते मगर वोट के बाद उस गांव को भूल जाया
करते थे।उसी गांव की डोंगरी पर स्थिति मां भवानी के संबंध में मैंने बचपने
से सुना रखा था कि वहां विराजमान मां भवानी सबकी मनोकामना पूर्ण करती है।
मेरे गांव में एक गोरखबाबा आया करता था। उसके भजन गायन बहुत ही निराली हुआ
करती थी। वह जब भी गांव में आता तो मेरे घर के पास ही पुरषोतम का मकान है
जहां कभी छपरी हुआ करती थी और पुरषोतम के पिता डुरियाहा उस पर कब्जा जमाया
रहता था। उसी छपरी पर गोरखनाथ बाबा आकर रूकते थे और वहीं से गांव गांव जाकर
दिन भर घूमते तथा रात्रि विश्राम के लिए वहीं पहुंच जाते। संध्या को
पहुंचने के बाद स्वयं भोजन बनाते और भोजन बाद वह अक्सर रात में पूरी
तन्मयता से सारंगी की धुन में भजन गाया करते थे।हम बच्चे थे। उनकी गायन
शैली और वाद्य ेेकी धुन सुनकर वहां पहुंच जाते। उस गोरखबाबा की खूबी यह थी
कि उसने कभी हमारी बात नहीं नकारी और तब तक हमें भजन सुनाते जब तक हम वहां
बैठे रहते थे।सुन तो रखा था - पुराना करेला की डोंगरी बीट क्रमांक 321 जो कि 380
हेक्टेयर में फैली है में मां भवानी विराजमान है तब न वहां सिढ़ियां थी और न
ही नीचे कोई मंदिर देवालय।ईश्वर के अस्तित्व को मेरे मन के किसी कोना ने
स्वीकार तो ली थी यही करण है कि जब भी मैं अपने गांव से डोंगरगढ़ की ओर जाता
तो जहां मां भवानी के विराजमान होने की बात लोग कहते थे उस डोंगरी की ओर
देखकर मैं अवश्य एक बार प्रणाम कर लेता था। मैं यह तो जानता था कि करेला की
डोंगरी में मां भवानी विराजमान है मगर मैं यह पक्का नहीं जान पाया था कि
कौन सी स्थान में मां भवानीं विराजमान है। क्योंकि ग्राम करेला से लगा हुआ
अनेक डोंगरियां है जो एक छोर से शुरू होकर दूर तक फैली है।
गोरखनाथ बाबा आए हुए थे। हम बच्चे जिसमें मैं, चन्द्रेश शर्मा, पवन जैन,
नरेन्द्र ठाकुर, के अलावा अन्य लोग बैठे हुए थे। जाने कैसी हम लोगों के
मध्य करेला डोंगरी में मां भवानी के होने की चरचा चल पड़ी,मुझे जहां तक
ख्याल है तब हमारे गांव में दो ही बस चलती थी एक डोंगरगढ़ से खैरागढ़ फिर शाम
को खैरागढ़ से डोंगरगढ़ और दूसरी बस सुबह मुढ़ीपार से राजनांदगांव और शाम को
राजनांदगांव से मुढ़ीपार। वह बस मुढ़ीपार में रात के रूकती थी। ये दोनों बसें
तब चलती जब बारिस का दिन नहीं होता बारिस लगते ही खैरागढ़ से डोंगरगढ़ चलने
वाली बस चलना बंद हो जाती थी क्योंकि पाड़ादाह व गर्रापार पुल में पानी पुल
के उपर आ जाता था। मुझे लगता है कि तब हमारे गांव के अतिरिक्त हमारे गांव
के आस पास के गांव के लोग भी डोंगरगढ़ पहाड़ी पर विराजमान मां बम्लेश्वरी के
दर्शन के लिए जाते थे। बस खचाखच भरी रहती थी और पैर रखने की ठौर नहीं होने
के बावजूद हम ठूसाने से बाज नहीं आते थे। संभवतः मां बम्लेश्वरी के
दर्शनार्थ आगंतुकों को देखकर मेरे मन के किसी कोने में यही लालसा रही होगी
कि मेरे गांव के पास डोंगरी में विराजमान मां भवानी के दर्शनार्थ भी ऐसे ही
लोग पहुंचें। यह चाहत सिर्फ मेरी ही नहीं रही होगी मेरे गांव के अतिरिक्त
अन्य गांव के लोगों की भी यही लालसा रही होगी। आवश्यकता मूर्तरूप देने की
थी। बात ही बात में डुरियाहा डोंकरा की छपरी में डेरा जमाये उस गोरखनाथ
बाबा के समुख हममें से किसी एक ने प्रस्ताव रख दिया कि क्यों न जहां मां
भवानी विराजमान है उस पहाड़ी में ज्योति प्रज्जवलित की जाये। हमारी बात उस
गोरखनाथ बाबा को जम गयी और एक दीप प्रज्जवलित करने का बीड़ा उसने उठा लिया।
फिर गांव करेला के लोगों ने एक समिति का गठन किया। जिसे मां भवानी सेवा
समिति का नाम दिया गया। जिसके अध्यक्ष महेन्द्रपाल के पिता गैंदलाल कंवर को
बनाया गया। फिर शुरू हो गयी मां की सेवा। फिर भी उस गांव तक पहुंचने के
लिए न सड़क थी न काली अंधेरा को दूर भगाने के लिए बिजली थी। वहां एक मूर्ति
थी। उस मूर्ति के संबंध में किसी को पता नहीं कि वह मूर्ति कब से उस स्थान
पर विराजमान है और उसकी स्थापना किसने की। जनमत है कि पहली मूर्ति आदिकाल
से है उस स्थान पर है। दूसरी मूर्ति सेठ प्रकाश जैन ने भेड़ाघाट जाकर लाया।
जिसकी विधि विधान से उस डोंगरी में स्थापित की गयी। इस तरह उपर मंदिर में
दो मूर्तियां हो गयी। धीरे - धीरे वहां चैत्र नवरात्रि के अवसर पर
मनोकामना दीप प्रज्जलित करने की संख्या बढ़ती गयी और लोग मां भवानी के
दर्शनार्थ उस डोंगरी में चढ़ने लगे तब गांव में त्यौहार जैसा महौल बनने लगा
और पूरा गांव के गांव मां भवानी के दर्शनार्थ पहुंचने वाले लोगों की सेवा
में लग गये। चैत्र की चिलचिलाती धूप में तब वहां पानी की भी व्यवस्था नहीं
थी। ग्राम करेला के पुरूष वर्ग कांवरों से व महिलाएं हउला से उपर तक पानी
पहुंचा कर भक्तगणों की प्यास बुझाने लगे। तब वहां सिर्फ पत्थरों का उबड़ -
खाबड़ रास्ता था। न सिढ़िया थी और न ही कोई अन्य व्यवस्था।
धीरे - धीरे मेरी उम्र भी बढ़ती गयी। शुरू से मुझे लिखने का शौक था। मां
भवानी की प्रेरणा कहूं या फिर मां बम्लेश्वरी के स्थान जैसे ग्राम करेला भी
बने ऐसी मेरी चाहत थी ! निश्चित नहीं बता पाता। लिखने की चाहत ने मुझे
प्रेरित किया कि क्यों न मैं करेला के संबंध में कुछ लिखूं । और मैंने लिखा
- एक गांव ऐसा जहां आज भी अंधेरा है। संभवतः यह लेख नवभारत में छपा था तब
पत्रकारिता की पूछ परख थी और छपने के बाद तुरंत प्रकाशित किसी लेख या
समाचार पर गौर किया जाता था। जब यह लेख छपा तब धनेश पटिला क्षेत्र के
विधायक थे। पढ़ते ही उनसे जब मेरी मुलाकांत हुई तो कहा - लिखे तो ठीक हो
मगर पुराना करेला और नया करेला का राजस्व ग्राम एक ही होने के कारण अनेक
दिक्कतें आती है जिसके कारण पुराना करेला विकास से वंचित रह जाता है। तब
छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश में था। पटिला ने मुझसे कहा था यदि मुझे अवसर मिला तो
अवश्य पुराना करेला में बिजली अवश्य लगेगी। इसके कुछ ही दिन बाद छत्तीसगढ़
पृथक राज्य बना और जहां अजीत जोगी मुख्यमंत्री बने वहीं उनके मंत्रिमंडल
में धनेश पटिला उर्जा मंत्री बने। अवसर था - मैंने फिर एक लेख छापा - उर्जा
मंत्री के क्षेत्र का एक गांव ऐसा है जहां लोग अब भी लालटेन और कंडील का
सहारा लेते हैं। संभवतः पटिला को अपने दिए वचन याद आ गया और उन्होंने
पुराना करेला में विद्युत विस्तार के लिए बीड़ा उठा लिए। वे उर्जा मंत्री
थे। कार्य आसानी से हो गया। और उनके कार्यकाल में पुराना करेला बिजली की
रोशनी से नहा गया।
कहीं न कहीं मां भवानी के प्रति धनेश पटिला के मन मे भी आस्था थी। वे बराबर
मां भवानी के दर्शन करने जाने लगे। तब धनेश पटिला से मेरा निकटता उतनी
नहीं थी जितनी कि बाद में हुई। तब प्रकाशचंद जैन,चन्द्रेश शर्मा, प्रमोद
शर्मा, गंगाराम सिन्हा, श्रवणकुमार, सिलिप, धन्नू यादव, सहित अनेक युवा व
बुजुर्ग उनके कार्यकर्ता हुआ करते थे। संभवतः तब धन्नू यादव जो कि बाद में
मां भवानी मंदिर सेवा समिति का अध्यक्ष बने वहां के सदस्य मात्र थे। तब मां
भवानी मंदिर सेवा समिति का अध्यक्ष धीरपाल हुआ करते थे। फिर वहां का
अध्यक्ष धन्नू यादव बना। सचिव अंजोरी निषाद बना। दोनों ने एक सदस्यता
अभियान चलाया चूंकि धन्नू राजनांदगांव में रहता था जिसका उसने पूरा लाभ
उठाया और अनेक लोगों को सदस्य बनाने के साथ चंदा भी वसूला और ग्रामीणों के
सहयोग से नीेचे मंदिर नींव डाल दिया जो धीरे - धीरे पूरा मंदिर का रूप ले
लिया। एक दिन ग्राम करेला के अनेक लोगों के साथ धन्नू और चन्द्रेश प्रमोद
मेरे पास आये और कहने लगे। नीचे मंदिर का निर्माण पूर्ण हो चुका है। वहां
मूर्ति स्थापना करना है। मूर्ति के लिए धनेश पटिला से पैसा मांगा जाये। मैं
कभी धनेश पटिला से पैसा नहीं मांगा था। बावजूद मैं धनेश पटिला के पास जाने
को तैयार हो गया। हम लोग पटिला के गांव पनेका गये। पता चला पटिलाजी रायपुर
चले गये है। हम निराश - हताश लौट गये। अचानक ध्यान आया कि पटिला जी संभवतः
सर्किटहाउस में होगे। हम लोग सर्किट हाउस पहुंचे। वहां पटिलाजी नहीं मिले।
सब अपने अपने घर को लौट गये।
एक दिन धन्नू, चन्द्रेश, प्रमोद, अंजोरी,धिरपाल सुबह सुबह मेरे पास पहुंचे।
कहने लगे - पटिला जी गांव गये थे। हमने मूर्ति के लिए पैसे मांगे है और
वे देने के लिए तैयार है। चलो, पैसा लेने जाना है। मैं तैयार हो गया। हमें
पटिलाजी सर्किट हाउस में ही मिल गये और उन्होंने हमें मूर्ति लाने पैसे दे
दिए। हम लोग दूसरे या तीसरे दिन भेड़ाघाट गये और वहां से मां भवानी की
मूर्ति लाये। कुछ दिन बाद नीचे मंदिर में मूर्ति की स्थापना की गई।
नीचे मंदिर में विराजमान मॉ भवानी |
ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं इस पर मैं बहस नहीं करना चाहता परन्तु इतना
तो अवश्य कहूंगा कि कहीं न कहीं ईश्वरीय शक्ति है वरन आज न मेरी मुलाकांत
उस गोरखनाथ बाबा से होती न मैं धनेश पटिला के खिलाफ लेख लिखता संभवतः आज भी
पुराना करेला में बिजली नहीं पहुंच पाती , न वहां मंदिर बन पाता और न ही
मैं मूर्ति लाने भेड़ाघाट जा पाता। आज जिस तरह से मां भवानी मंदिर में
मनोकामना ज्योति प्रज्जवलित करने की संख्या बढ़ती ही जा रही है। प्रतिदिन
भक्तगणों की संख्या बढ़ती जा रही है इससे यह स्पष्ट होता है कि कहीं न कहीं
देवीय शक्ति है। जो एक प्रेरणा देती है, कुछ करने के लिए प्रेरित करती है।
बीच के कुछ दिनों मुझे लगने लगा था कि मां भवानी मंदिर सेवा समिति में कुछ
ऐसे लोग घुस गये हैं जो ग्रामीणों में आपसी मनमुटावा के अतिरिक्त धार्मिक
स्थल को राजनीतिक स्थल बना रहे हैं।जिन लोगों ने मां भवानी मंदिर सेवा
समिति में पूर्व में योगदान दिए हैं उनके नाम को विरोपित करने का प्रयास
किया जा रहा है। मेरे पास एक साधन था - समाचार पत्र, मैंने उसमें आजीवन
सदस्यों की सूची प्रकाशित करना शुरू किया ताकि लोगों को सत्यता की जानकारी
हो और यह जान सके कि वास्तव में मंदिर विकास में किन लोगों का प्रथम योगदान
रहा है इसके साथ ही मैं वहां जाना बंद कर दिया मगर संभवतः मां भवानी को यह
स्वीकार्य नहीं था।मेरे सम्पर्क में राजनांदगांव बसंतपुर के बिसनाथ आया।
वह धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसने मेरे सामने राधा कृष्णा मंदिर
निर्माण का प्रस्ताव रखा। उसकी इच्छा थी कि राजनांदगांव में जमीन खरीद कर
राधा कृष्ण मंदिर का निर्माण कराया जाये मगर मां भवानी को तो कुछ और ही
मंजूर था। मैं और बिसनाथ जमीन खोजने निकले। चाह रहे थे - सस्ती में जमीन
मिल जाये तो लेकर मंदिर निर्माण करवा दे। जमीन खोजने जब निकले तो पता चला
कि जितनी की जमीन खरीदी जायेगी उतनी राशि में राधा कृष्ण का मंदिर बन
जायेगा। सहसा मेरे मन में आया कि क्यों न मां भवानी मंदिर करेला में ही
राधा कृष्ण का मंदिर बनवा दिया जाये। मैंने अपनी बात बिसनाथ के पास रखा।
उसे कोई आपत्ति नहीं थी। वह तो मंदिर चाहता था। मैंने ऐसी जगह का नाम बताया
था जहां प्रतिदिन सैकड़ों लोग पहुंचते हैं। बिसनाथ के लिए इससे बड़ी खुशी की
बात और क्या थी कि वह उस स्थान पर मंदिर का निर्माण करवायेगा जहां
प्रतिदिन सैकड़ों दर्शनार्थी दर्शन करेंगे। मैंने मां भवानी मंदिर सेवा
समिति के उपाध्यक्ष उदयलाल वर्मा से सम्पर्क किया। अपना प्रस्ताव रखा।
उदेलाल वर्मा मेरे प्रस्ताव पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा - यह तो
अच्छी बात है। फिर मैं और बिसनाथ मंदिर निर्माण के लिए जगह देखने मां भवानी
मंदिर पहुंचे। उदेलाल वर्मा द्वारा हमें जगह दिखाया गया। जहां से उपर
मंदिर जाने के लिए सीढ़ी शुरू होती है उस स्थान को मंदिर निर्माण के लिए
उदेलाल वर्मा द्वारा दिखाया गया। इससे बड़ी खुशी की बात और क्या थी मंदिर
निर्माण के लिए वह जगह मिल रही थी जहां से होकर दर्शनार्थी डोंगरी
विराजमान मां भवानी के दर्शन के लिए जायेंगे। फिर शुरू हो गया मंदिर
निर्माण का कार्य। मंदिर निर्माण का कार्य उदेलाल वर्मा को सौंपा गया
क्योंकि रोज उपस्थित होकर मजदूरों से काम करवाना मेरे लिए संभव था और न ही
बिसनाथ यादव के लिए।
मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह सब मां भवानी की ही प्रंेरणा का परिणाम है।
कहा जाता है न कि उसके बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। मैं तो मंदिर में
राजनीतिकरण को देख कर थोड़ी दूरी बनाना चाहता था पर मेरे चाहने से क्या होने
वाला था। मां भवानी की चाहत तो और कुछ थी - वह चाहती ही नहीं थी कि मैं
मंदिर से दूर होउं यही कारण है मेरी मुलाकांत बिसनाथ से हुई और उसके
द्वारा मंदिर निर्माण का प्रस्ताव रखा गया।
या देवी सर्वेभूतेषू शक्ति रूपेण संस्थिता:।
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नम:॥
छत्तीसगढ़ के पावन धार्मिक स्थलों में एक नाम आता है
डोंगरगढ़ जी हां, मां बम्लेश्वरी की पावन धरती डोंगरगढ़ से मात्र 17
किलोमीटर की दूरी पर स्थित है ग्राम करेला। यहां स्थित डोंगरी को भवानी
डोंगरी के नाम से जाना जाता है। बीट क्रमांक 321 जो कि 380 हेक्टेयर में
फैला है। इस पहाड़ी पर प्राकृतिक छटा के मध्य विराजमान है मां भवानी। यहां
से लगा है ग्राम बन्दबोड़, यहां जंगल में स्थापित है बाबा बन्छोर देव।
यहां स्थापित बन्छोर देव की प्रतिमाएं पन्द्रहवीं - सोलहवीं ईसा पूर्व की
बताई जाती है।
इन धार्मिक स्थलों की ओर जाने के पूर्व पहुंचना पड़ता
है ढारा - मोहारा चौक , जो ठेलकाडीह से होते हुए जिला मुख्यालय राजनांदगांव
से जोड़ता है। दक्षिण से आने वाले मार्ग में मां बम्लेश्वरी की पावन धरा
डोंगरगढ़ को जोड़ता है। जबकि उत्तर से आने वाले मार्ग खैरागढ़ को जोड़ता
है। मां दन्तेश्वरी चौक से ही देखने मिलती है पुरातातात्विक महत्व के पाषाण
पर अंकित कलाकृतियॉ । जहां पूर्व की सड़क से निकलते वक्त एक विशालकाय पीपल
वृक्ष के तले दाहिने ओर पुरातात्विक महत्व की कलाकृतियाँ मिलती है, वहीं
दक्षिण की ओर निकलने पर दाहिने की ही ओर पुरातात्विक महत्व की कलाकृतियाँ
मिलती हैं। यहां पर मां भवानी मंदिर पहुंच मार्ग को चिन्हाकिन्त करने
बोर्ड लगाया गया है।
बनबोड़ के जंगल में विराजमान बाबा बन्छोर देव |
मां दंतेश्वरी चौक से उत्तर की ओर पक्की सड़क से
आगे बढऩा पड़ता है। लगभग एक किलोमीटर का रास्ता तय करते ही पुन: मार्ग
विभाजक मिलता है। यहां पर से ही पश्चिम की दिशा की ओर प्राकृतिक छटा दिखना
शुरू हो जाता है। मार्ग विभाजक से जहां एक मार्ग उत्तर दिशा की ओर जाता है
वहीं दूसरे मार्ग पूर्व दिशा की ओर जाता है। हालांकि दोनों मार्ग खैरागढ़
को जोड़ता है यहां से मां भवानी, बाबा बन्छोर देव एवं मां विन्धयवासिनी के
दर्शनार्थ भक्तजनों को उत्तर दिशा की मार्ग पर चलना पड़ेगा। इस तिराहे से
ही प्राकृतिक छटा दिखाई देने लगता है। इस मार्ग से गुजरते हुए पश्चिम दिशा
की ओर पड़ी दिखाई देती है खेती की जमीन और आच्छादित वन। यहां की प्राकृतिक
छटा मन को लुभाने लगता है। जल्द से जल्द उस प्राकृतिक छटा के नजदीक
पहुंचने की लालसा बढ़ जाती है। यह मार्ग भी पक्की ही है। इस डामरीकृत मार्ग
से होते हुए लगभग दो किलोमीटर का रास्ता तय करने के बाद फिर एक तिराहे
मिलेगा। इसे करेला चौक नाम से जाना जाता है। यहां पर दो करेला गांव है।
पूर्व दिशा में स्थित गांव को नया करेला कहा जाता है जबकि पश्चिम दिशा में
स्थित गांव को पुराना करेला के नाम से जाना जाता है। यानि मां भवानी का
पावन तीर्थ स्थल। इस मार्ग में प्रवेश कच्ची मार्ग से करना पड़ता है। आज
भी इस क्षेत्र की महिलाएं जंगलों से लकडिय़ां बीन कर लाती है। उसकी आग से
भोजन बनता है। इस मार्ग से सिर पर लकडिय़ों की गठ्ठर उठाए आती महिलाएं दिख
ही जायेंगी। लगभग एक फर्लांग बाद ही शुरू हो जाता है पुराना करेला। यहां
एकाध मकान को छोड़ दे तो शेष मकान कच्ची और कवेलू के ही नजर आते हैं।
मकानों के आंगन बांसों को घेरा से सुरक्षित दिखाई देगी। इन मकानों को पीछे
छोड़ते ही दिखाई देने लगती है हरियाली से आच्छादित वन और दूर दूर तक खाली
पड़ी जमीन। जैसे ही वन ही निचले भाग में पहुंचे कि नीचे स्थित मां भवानी
मंदिर के गगनचुंबी गुंबद और लहराते ध्वजा अपनी ओर खींचती है, मंदिर घंटी
घंटी की गूंज से किसी धार्मिक स्थल पर होने की अनुभूति होने लगती है।
मां
भवानी मंदिर के सामने बनाया गया है हवनकुण्ड। यहां क्वांर एवं
चैत्रनवरात्रि पर्व पर ज्योति विर्सजन पूर्व किया जाता है हवन कार्यक्रम ।
नीचे स्थित मां भवानी के दर्शन बाद उत्तर दिशा में कुछ ही कदम की दूरी पर
चलना पड़ता है फिर मुडऩा पड़ता है पश्चिम की ओर। जैसे ही ऊपर पहाड़ी पर
विराजमान मां भवानी के दर्शनार्थ कदम बढ़ते हैं तो सामने मिलता है प्रवेश
द्वार। इस प्रवेश द्वार को वृक्ष का रूप दिया गया है। थोड़ी दूर मिलती है
समतल भूमि। जैसे ही सीढ़ी शुरू होती है इसके पहले दाहिने ओर मिलती है एक
बोरिंग जहां प्यास बुझा भक्तगण बढ़ते चलते हैं आगे की ओर। अभी पहाड़ी वाली
मां भवानी के प्रागंण तक पहुंचने के लिए सीढ़ी का निर्माण कार्य जारी है।
कुछ सीढिय़ां लांघने के बाद शुरू हो जाता है पथरीला राह। वन की चढ़ाई और
पथरीला राह को भक्तगण बिसर जाते हैं अपने आजू - बाजू के वनों की हरियाली को
देखकर।
पथरीला राहों को पीछे छोड़ते हुए भक्तगण पहुंच जाते हैं उस
स्थल पर जहां की प्राकृतिक छटा के दर्शन की ललक को वह संवार नहीं पाता।
पहाड़ की इस समतल क्षेत्र पर खड़ा होकर निहारने से दूर - दूर तक दिखाई देने
लगते हैं घने जंगल। इस अनुपत दृश्य को देखकर एक पल तो लगता है कि कहीं
सतपुड़े के घने जंगल में तो नहीं पहुंच गये। इस स्थल पर खड़े होकर देखने से
जहां पश्चिम की ओर दिखाई देता है ओडार बांध वहीं दक्षिण दिशा की ओर
डोंगरगढ़ की पहाड़ी पर विराजमान मां बम्लेश्वरी की मंदिर। यहां से डंगोरा,
खैरबना जलाशय एवं शिवपुरी तालाब को भी आसानी से देखा जा सकता है।
भक्तगणों
के कदम आगे बढ़ते हैं। थोड़ी सी ही चढ़ाई बाद पहुंच जाते हैं मां भवानी के
दरबार में। जिस मंदिर में भवानी विराजमान है, उससे कुछ ही दूरी पर एक
वृक्ष के नीचे चौड़ी पर मिट्टी का बनाया गया है नादिया बैल। यहां पर हाथी
और हूम धूप का खप्पर रखा गया है। यहां पर बजरंगबली की मूर्ति स्थापित है
जिसके बाद में एक गदा रखा गया है। उसके ठीक सामने तुलसी चौरा है। मां भवानी
की तस्वीर के सामने मां की सवारी है। मां भवानी मंदिर के भीतर दीप
प्रज्जवलित की गई है जो अनवरत जलती रहती है। मां भवानी मंदिर के ठीक बाजू
अर्थात् उत्तर दिशा में ज्योति कक्ष बनाया गया है। यहां प्रतिवर्ष भक्तों
द्वारा क्वांर एवं चैत्र नवरात्रि के पावन पर्व पर मनोकामना दीप प्रज्जवलित
की जाती है। मंदिर की दक्षिण दिशा में मां की झूला है। इसके ठीक पीछे
त्रिशूल, बाना, तराजू खंजर और माताजी के नील लगे चरण पादुका रखा गया है।
मां
भवानी के आगमन के संबंध में बताया जाता है कि आज से लगभग दो ढाई सौ वर्ष
पूर्व स्वर्गीय श्री नारायण सिंह कंवर जो कि मालगुजार थे ओसारे में कुछ
ग्रामीणों के साथ बैठे हुए थे। जेठ - बैसाख का माह था। भरी दुपहरी में
जलजलाती हुई सर्वांग में बड़ी माता लिए एक तरूण अवस्था की कन्या आयी।
चेहरे
तेज, उन्नत ललाट, श्वेत वस्त्र धारण किये उस कन्या ने मालगुजार स्व. श्री
नारायण सिंह कंवर से अपने विश्राम के लिए जगह मांगी। श्री कंवर ने उससे
अपने घर में ही रहने का आग्रह कर फिर से ग्रामीणों से बातचीत करने व्यस्त
हो गये मगर जैसे ही उनका ध्यान ग्रामीणों से बंटा और ध्यान आया कि कोई
कन्या आयी थी तथा ठहरने के लिए जगह मांगी थी वह दिखाई नहीं दे रही है। वे
हड़बड़ा गये। तब तक वह कन्या वन का रास्ता पकड़ ली थी। स्वर्गीय नारायण
सिंह कंवर उस कन्या के पीछे दौड़े साथ ही ग्रामीण भी। जब तक वे उस तक
पहुंचते तब तक वह कन्या ऊपर पहाड़ी पर पहुंचकर बांस भीरा और एक चिरपोटी के
नीचे छांव पर जा बैठी थी। श्री कंवर ने हाथ जोड़कर कहा कि माता मैंने तो
आपको अपने घर में ठहरने कहा था, आप तो यहां आ गयी। चलिए मेरे निवास में...
तब माता ने कहा - मेरे लिए यही जगह उपयुक्त है। मुझे यही रहना है। मां
भवानी की बात सुनकर स्वर्गीय नारायण सिंह कंवर ने ग्रामीणों को वहां कुटिया
बनाने कहा। ग्रामीण कुटिया बनाने लकड़ी की व्यवस्था कर ही रहे थे कि वह
कन्या वहीं पर लुप्त हो गयी।
बताया जाता है कि मां भवानी सर्वमंगलकारी है। उनकी कृपा से कई लोगों की दरिद्रता दूर हुई है। कष्टों से कई लोगों ने मुक्ति पाई है।
नीचे
मां भवानी मंदिर समतल भूमि में स्थित है। मां भवानी और बाबा बन्छोर देव की
पावन धरा बन्दबोड़ के मध्य बना है एक जलाशय। इस जलाशय को भंडारपुर जलाशय
के नाम से जाना जाता है। यहां की प्राकृतिक छटा देखते ही बनती है। इस
प्राकृतिक छटा को निहारते हुए भक्तगण पहुंचते है ग्राम बन्दबोड़ और फिर
शुरू हो जाता है बाबा बन्छोर देव के दर्शनार्थ पहुंचने पथरीला रास्ता। यहां
मोकइया वृक्ष के तले घोड़े पर बाबा बन्छोर देव सवार है। यहां दर्जनों की
संख्या में पुरातात्विक महत्व की कलाकृतियाँ बाउण्ड्रीवाल की दीवार से संटा
कर रखी गई है। किंवदंती है कि एक समय छैमासी रात पड़ी थी। इस छैमासी रात
में बन्छोर देव घोड़े पर सवार होकर दल - बल समेत बरात जा रहे थे। संभवत:
वह रात छैमासी की आखिरी रात थी। बाबा बन्छोर देव दल बल सहित बनबोड़ के वन
से गुजर रहे थे कि सुबह हो गई और वे मूर्तिरूप में परिवर्तित हो गए। यह भी
कहा जाता है कि ग्राम बन्दबोड़ के लोग मूर्तिकला में पारंगत थे। वे खाली
समय में मनोरंजन की दृष्टि से वन में जाकर पत्थरों में मूर्ति कुरेदा करते
थे। आज भी बन्दबोड़ में कुंभकारों का एक पारा है। यहां के मूर्तिकारों की
ख्याति न सिर्फ गांव तक सीमित है, अपितु इनके द्वारा बनाये मूर्तियों की
मांग जिला मुख्यालय तक है, इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यहां आदिकाल
से मूर्तिकला जीवित है। बन्छोर देव तक पहुंचने के पूर्व रावण भाठा पड़ता
है, जहां प्रत्येक वर्ष दशहरा पर्व मनाया जाता है यहां संक्षिप्त रामलीला
के बाद रावण वध किया जाता है।
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